पुस्तक संस्कृति: महामारी में भक्ति साहित्य का महत्व

महामारी में भक्ति साहित्य का महत्व: कौशल किशोर

कोरोना वायरस के कारण इस महामारी से जूझते लोगों ने भक्ति साहित्य में दिलचस्पी लेना आरंभ किया है। वर्ष 2020 के आरंभिक काल में तालाबंदी के साथ टीवी पर एक बार फिर से रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिकों का प्रसारण किया गया था। व्यावसायिक टीवी के इस दौर में भी इसकी सफलता खूब चर्चा में रही। इसके अलावा शास्त्रीय कथाओं पर आधारित कई अन्य कार्यक्रमों ने भी टीवी पर सफलता अर्जित की है। यह सब भारतीय जीवनशैली में पौराणिक कथाओं के महत्व को ही इंगित करता है। धार्मिक साहित्य के सबसे बड़े प्रकाशक की बिक्री का रिकार्ड खंगालने पर भी इस तथ्य की पुष्टि होती है।

महामारी के दौर में गोरखपुर का गीता प्रेस खूब चर्चा में है। किताबों की बिक्री का तमाम पुराना रिकार्ड तोड़ कर पिछले साल इसने नए रिकार्ड बनाए हैं। महामारी से भयाक्रांत लोगों को आध्यात्मिक किताबों ने बेहतर जीवन जीने के लिए मार्गदर्शक का काम किया है। यही वजह है कि गीता प्रेस की पुस्तकों में इस बीच अप्रत्याशित वृद्धि दर्ज की गई है। प्रतिदिन न्यूनतम 50 हजार किताबें बेचने वाली यह आध्यात्मिक संस्था बीती सदी में दुनिया की बेहतरीन प्रकाशन में गिनी जाने लगी। मासिक पत्र ‘कल्याण’ के पाठकों की संख्या आज ढाई लाख है। इसके श्रीमद् भगवद्गीता और रामचरितमानस जैसे सफलतम पुस्तकों की बिक्री की संख्या 10 करोड़ का आंकड़ा पार कर चुका है। इस प्रकाशन सूची का विस्तार बाल साहित्य में योगदान से होता है।

हिंदी बोलने वाले लोगों में भक्ति और धर्म को प्रोत्साहित करने के लिए 29 अप्रैल 1923 को जयदयाल गोयंदका ने गीता प्रेस को शुरू किया था। आज इसकी किताबें 15 भाषाओं में उपलब्ध हैं। प्रामाणिक व सुंदर साहित्य न्यूनतम कीमत पर उपलब्ध कराने के कारण गोरखपुर का यह प्रकाशन दुनिया भर में प्रसिद्ध हुआ। इस बीच 60 करोड़ से ज्यादा किताबें बेचने वाली यह इकलौती संस्था है। कोरोना महामारी के दौरान बिक्री में तो वृद्धि हुई, परंतु छपाई में बाधा पहुंची है। परिणामस्वरूप अनेक पुस्तकों का स्टाक भी खत्म हो गया। इस समस्या को दूर करने के लिए प्रेस प्रबंधन ने जापान से नई मशीन खरीदा है। चार रंगों में छपाई करने वाली यह मशीन एक घंटे में पंद्रह हजार बड़े पन्ने छापने में सक्षम है। प्रेस के संरक्षक और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के हाथों इसका श्रीगणेश किया गया था।

आधुनिकता से पहले भारतीय जीवनशैली में ईश्वर की भक्ति का अपना ही महत्व था। गांव और मोहल्ले के लोगों के बीच तुलसी के मानस की पंक्तियां गाने का प्रचलन था। पढ़े-लिखे लोगों के अलावा वाचिक परंपरा के सामान्य लोग भी गीता का श्लोक गाते थे। मनोरंजन के साधनों की वृद्धि के युग में इसके प्रति उदासीनता पनपने लगी थी। महामारी काल की विपत्तियों को दूर करने के लिए लोगों ने साहित्य की इस विधा में रुचि लेकर स्पष्ट कर दिया है कि प्राचीन भारत का यह वैभव भी अतुलनीय है।

गोरखपुर के प्रकाशन की उच्च गुणवत्ता व न्यूनतम मूल्य एक आश्चर्यजनक उपलब्धि है। आज यह भारतीय धार्मिक समाज की पहचान साबित हुई है। इसके पुस्तकों की कीमत देखकर यही लगता है कि संभवत: यह लागत से भी कम है। साथ ही एक दिलचस्प तथ्य यह है कि गीता प्रेस किसी सरकारी अथवा गैर सरकारी अनुदान पर आश्रित भी नहीं है। सफलता की यह दास्तान भारतीय समाज का अपनी ही जड़ों से जुड़े होने का प्रमाण है। इसे निरंतर कायम रखने पर सनातन संस्कृति को संजीवनी मिलती रहेगी।
जागरण राष्ट्रीय संस्करण 9 जनवरी 2022

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